अन्धकार की चादर में मुँह छुपाये तीव्र गति से भागती रात्रि, उसके पीछे स्वर्णिम रश्मियों से सजी नववधु की भाँति आहिस्ता क़दमों से प्रवेश करती भोर, पक्षियों का कलरव और दूर कहीं सुनाई पड़ती घण्टा ध्वनि व शंखनाद के साथ "जय अम्बे गौरी, मइया जय श्यामा गौरी....." की आरती की स्वर लहरी ...... ऐसे होता था मेरे बचपन का सवेरा ।
उत्तर प्रदेश की राजधानी के 'चौक' का वो स्थान जहाँ मेरा जन्म हुआ। वहीँ घर के निकट माँ काली का प्रसिद्ध भव्य मन्दिर था। आँख खुलते ही प्रतिदिन 'शक्ति' की विविध उपासना के स्वर कानों से सहज ही टकराते और मुंदीं आँखों में भी शक्ति स्वरूपा माँ की तस्वीर साकार हो जाती। तब मन सोचता कि कोई है जो सर्वशक्तिमान है, जो थामे है हम सबकी डोर। इधर घर में भी प्रातः अन्य कार्यों से पूर्व नज़र आता घर का वह कोना जहाँ एक प्रज्ज्वलित दीपशिखा के सम्मुख दिखाई देती भीगी अलकों और मुंदी पलकों के साथ नतमस्तक मेरी माँ। तब मन में फिर ये प्रश्न उठता कि कौन है वो जिसके समक्ष करबद्ध खड़ी है मेरी जन्मदात्री?
नवरात्री के पर्व पर सजा हुआ निशि श्रीवास्तव के घर का मंदिर
फिर धीरे- धीरे अपनी माँ के सानिध्य में देवी पूजा और प्रत्येक शाम मन्दिर आने-जाने के साथ ही जैसे 'शक्ति' की वो दिव्य मूर्ति हृदय में स्वयं ही प्रतिष्ठित होती चली गई। इस प्रकार बाल्यावस्था से ही उस 'शक्ति स्वरूपा देवी' के प्रति आस्था, विश्वाश और श्रद्धा ने उनके प्रति एक अनुराग सा बना दिया। फलस्वरूप अपनी माँ द्वारा किये जाने वाले सभी धार्मिक अनुष्ठानों में मेरी प्रमुख भूमिका रहने लगी। लेकिन जैसे-जैसे नवदुर्गा पर्व का आगमन निकट आता मन में एक अलग ही हलचल, उत्साह, ऊर्जा का जन्म होने लगता और मन उस अलौकिक शक्ति स्वरूपा माँ की आराधना से रोमांचित हो उठता। नवरात्रि में सजे माँ के दरबार व अदभुत पाण्डाल बालपन में आकर्षण का केंद्र होते तो माँ का फूलों से श्रंगार करना कहीं अंदर तक आह्लादित कर देता। जितना समय देवी माँ की आराधना, उपासना में लगता मन उतना ही अधिक उनके निकट होता जाता और माँ के शक्ति पुंज मेरी आत्मा में गहरे समाते चले जाते।
वस्तुतः शक्ति की उपासना का ये पर्व आदि शक्ति के नौ रूपों की पूजा का पर्व है, जिसे 'नवदुर्गा' कहते हैं।
"दुर्गा का आशय ही जीवन से दुखों का नाश करने वाली होता है।"
सूक्ष्म मानव मन और वह शक्ति जो समस्त ब्रम्हाण्ड में निरंतर व्याप्त है, इस प्रार्थना, उपासना द्वारा उस 'शक्ति' को जगाने का नाम ही 'नवरात्रि' है। वो शक्ति जो सबकी पालनकर्ता है, जो कोमल और पालक होकर भी समय आने पर माँ काली के रूप में दुष्टों और कष्टों की संहारकर्ता बन जाती है।
नवरात्रि का ये पर्व आश्विन (शरद) और चैत्र (वसंत) मास के प्रारम्भ में मनाया जाता है। अगर ध्यान दें तो इस वक्त प्रकृति भी नवीनीकरण की प्रक्रिया में होती है। नवरात्रि में भी उपासना, प्रार्थना, मौन और उपवास के द्वारा मन अपनी वास्तविकता से साक्षात्कार करता है तथा अंतरात्मा की नकारात्मकता का संहार करता है। शक्ति के आह्वान से जहाँ मन की अशुद्धियों का विनाश होता है वहीं उपवास की क्रिया शरीर को शुद्धता प्रदान करती है जिससे 'सात्विक ऊर्जा' की वृद्धि होती है।
प्रकृति के साथ चेतना के उत्सव नवरात्रि में शक्ति के तीन रूप दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती की आराधना की जाती है। शक्ति के ये सभी रूप नकारात्मकता से रक्षा के लिये एक 'कवच' का काम करते हैं। देवी के इन रुपों के स्मरण मात्र से ही मन 'आत्मकेंद्रित', निर्भय और शान्त होता है। इन नौ दिनों में जब हम देवी दुर्गा के विभिन्न स्वरूपों की उपासना करते हैं तो वे गुण हमारी चेतना में समाहित होते चले जाते हैं।
दुर्गा पूजा यद्यपि देश भर में मनाया जाता है फिर भी इस पर्व का आकर्षक रूप और परम्परा की खूबसूरती पश्चिम बंगाल में अधिक देखने को मिलती है। ये नौ दिन पवित्रता, सत्यता, भव्यता और तेजस्व की अलौकिक आभा लिये होते हैं। शक्ति का ये पर्व बताता है कि झूठ कितना भी बड़ा और पाप कितना भी शक्तिशाली क्यों न हो आखिर में जीत सच्चाई और धर्म की ही होती है। इस प्रकार शारदीय नवरात्र अधर्म पर धर्म और असत्य पर सत्य की जीत का प्रतीक है।
नवरात्रि के पर्व पर स्थापित “कलश” और बोई गई जौं।
चित्र श्रेय: नेहा श्रीवास्तव
उत्तर भारत में शक्ति के नौ स्वरूपों की पूजा का प्रारम्भ कलश स्थापना के साथ करते हैं जिसे 'घट स्थापना' भी कहते हैं। इस कलश पर नौ दिन तक जलने वाली एक अखण्ड जोत प्रज्ज्वलित की जाती है। ये घट स्थापना वस्तुतः शक्ति की देवी का आह्वान है।
नवरात्र में कलश स्थापना के साथ जौं बोने की परम्परा भी सनातन धर्म में सदियों से चली आ रही है। धर्म ग्रन्थों में जौं को ब्रह्म स्वरूप माना गया है। पूजा में इसका सम्मान करने का अर्थ अन्न का सम्मान करना ही है। नवदुर्गा में माँ उनके घर पधारे इसके लिये श्रद्धालु घर के मुख्य द्वार के दोनों ओर कुमकुम या रोली से स्वास्तिक व रंगोली भी बनाते हैं। लाल रंग को शास्त्रों में शक्ति का प्रतीक माना गया है। इस प्रकार नवरात्रि नौ शक्तियों के मिलन का पर्व है।
मेरे लिये नवरात्रि इसलिये भी महत्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि माँ का शक्ति रूप मेरे मन के भीतर अदम्य ऊर्जा का संचार करता है जिसमें एक 'विशेष बल' होता है। इस तरह शक्ति की उपासना शारीरिक, शैक्षिक और बौद्धिक बल प्रदान करती है। उन नौ दिनों में मन माता के जिस स्वरूप की पूजा करता है उस गुण का प्रवेश मन में सहज ही समाहित हो जाता है और आत्मा सकारात्मक ऊर्जा से भर उठती है। मेरी दृष्टि से नवरात्रि शारीरिक, मानसिक शुद्वि का पर्व है।
इस तरह बचपन से अब तक इस उपासना के कारण 'शक्ति स्वरूपा माँ' से सहज ही एक आत्मीय सम्बन्ध स्थापित हो गया। जैसे कोई बालक अपनी माँ के गुणों को अपने आचार-विचार व व्यवहार में उतार लेता है वैसे ही समय के साथ अनजाने ही निडरता, स्नेह, क्षमा, दया, मानवता और संकटों से लड़ने का साहस सहज ही 'शक्ति' की कृपा स्वरूप मेरे स्वभाव का हिस्सा बनता चला गया। जहाँ एक ओर माँ के सम्मुख प्रज्ज्वलित दिव्य ज्योति मन के भीतर अन्धकार रूपी तमाम बुरे भावों का विनाश करती वहीँ माँ का तेजस्वी रूप शत्रुओं के सामने अडिग खड़े रहने का साहस देता, तो माँ का लक्ष्मी और सरस्वती रूप आत्मा में बौद्धिकता व सात्विकता का संचार करते।
संक्षेप में बस इतना ही कि 'शक्ति' से अपनी आत्मा का जो अदभुत रिश्ता नवरात्रि में स्थापित हो जाता है वह शक्ति की वो अनुभूति है जो लहू से लेकर अन्तरात्मा तक की नकारात्मकता का संहार कर सकारात्मक ऊर्जा को प्रवाहित कर जीवन की दिशा का नवोन्मेष करती है।
ऐसी है मेरी शक्ति स्वरूपा माँ और उसका नवदुर्गा पर्व।
जय माँ,जय शक्ति।
Nishi Srivastava
Nishi is an academician, a writer, a Hindi scholar and a poet. As a poet, she draws inspiration from life and the experiences around her.